दीवाली की शाम

ड्राइव-वे पर लट्टू ने कार रोकी तो वह दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल आए। धीमे-धीमे कदमों से अपने घर की ओर बढ़ते वह वहीं बीच में रुक गए, वह अक्सर ऐसा करते थे जैसे अपने ही घर को किसी और की नज़रों से तोल रहे हों। सफ़ेद भव्य घर, छोटी-छोटी ईंटों की तरह की सफ़ेद टाइलें। दो बड़े दरवाज़ों के ऊपर पूरी दूसरी मंज़िल जितनी बड़ी शीशे की खिड़की में से झाँकता फ़ानूस।
सोचते, क्या ताजमहल लगता है। मुँह से निकलता, शुक्र है मालिक तेरा शुक्र है। दिल से मरोड़ उठती, "काश यही घर हिंदुस्तान में होता तो कम से कम उनके दोस्त आकर उनका यह वैभव तो देखते।
उन्होंने पीछे घूम कर देखा। सारी सड़क पर कोई देखने वाला नहीं था। नवंबर की शाम थी। ठंड पड़ी नहीं थी सिर्फ़ अपने आने की सूचनाएँ भेज रही थी। पत्ते भी मौसम के हिसाब से अपने रंग बदल कर धराशायी हो गए। सब घरों के बाहर बढ़ना शुरू हो रहा था। कोई गाड़ी पास से गुज़रती तो हकबका कर बाहर की रोशनी जग जाती। उनका मन जो अपना घर देख कर थोड़ा मुग्ध हुआ था, वही अब आस-पड़ोस के घर देखकर क्षुब्ध हो गया। दिवाली का दिन है और कहीं कोई शगुन तक के लिए भी रोशनी नहीं। सिर्फ़ काले पड़ते पेड़ों की डालियों से छन कर आता आकाश का फीका-सा उजाला था।


लट्टू ने कार में से आख़िरी प्लास्टिक के थैले उठाए और जल्दी से घर की ओर बढ़ता हुआ बोला, ''पापा जल्दी अंदर आ जाइए, ठंड लग जाएगी।'' वह थके कदमों से गैराज की ओर से घर के अंदर दाखिल हुए। बायीं ओर मुड़ कर हाथ जोड़ दिए। उस कमरे में मंदिर जो था। फिर दायीं ओर बढ़े। हाथ का बैग खाने की मेज़ कर रख दिया। कोट वहीं कुर्सी की पीठ पर डाल कर वह बैठ गए। उन्हें लगा कि जैसे चुप्पी के इस अंधेरे-उजाले में वह बरसों से अकेले रह रहे हैं। यह घर लौटने की घड़ी, यह संध्या का वक़्त, रोशनी को जब दिन नहीं कहा जा सकता और अँधेरे को रात नहीं कहा जा सकता, यह वक़्त उन्हें हिला गया। सूनेपन का अँधेरा उनके अंदर एक अंधे कुएँ की तरह उतरने लगा। वह यों ही निश्चल बैठे रहे।
किसी को भी किसी की प्रतीक्षा नहीं थी। उनके आस-पास सब कुछ वैसे था जैसे सफ़ेद और काले रंगों से बनाई गई कोई जड़ तस्वीर हो। इस तस्वीर में चीज़ें ही चीज़ें थीं, ढेर सारी चीज़ें। सिंक में ढेर सारे जूठे बर्तन, काउंटर पर जल्दी-जल्दी खोला गया बिस्कुट का पैकेट, पीज़ा का पुराना डिब्बा, आधी पी गई सोडे की बोतल। एक स्टोव पर कड़ाही थी और दूसरे पर खुला प्रेशर कुकर। कोने में मिक्सी और टोस्टर पड़े थे पर उनकी रेखाएँ धूमिल-सी थीं। उन्होंने सोचा कि अगर कोई दूसरा उनको देखे तो शायद कुर्सी पर बैठी उनकी आकृति भी इस जड़ तस्वीर का ही एक हिस्सा लगेगी।
उन्होंने दायीं तरफ़ से बड़े से फैमिली रूम की ओर नज़र घुमाई। ज़िंदगी की तस्वीर सिर्फ़ रुकी हुई ही नहीं बोझिल भी थी। भारी-सा कालीन, उस पर उससे भी भारी सोफा, उस पर रंगीन गद्दियों का ढेर जिन्हें वह ठीक से देख नहीं सकते थे बस हल्के अँधेरे में अंदाज़ा लगा सकते थे। सभी कुछ ठहरा हुआ था, उनकी भीतरी ज़िंदगी की तरह। उन्होंने ज़ोर से साँस ली जैसे कि इस रुकी हुई ज़िंदगी में जान डालने की कोशिश कर रहे हों।
लगा, गद्दियों के भीतर से जैसे कुछ हलचल हुई। उन्होंने अंदाज़े से ही पहचाना लक्ष्मी की आँख लग गई होगी। अगर घर में कुछ पकने की ही खुशबू आ रही होती तो शायद यह तस्वीर थोड़ी सजीन हो जाती। पर अब लक्ष्मी बहुत अरसे से खाना नहीं पकाती। बहुत पकाया है बेचारी ने। सत्तर से ऊपर की हो गई है वह। भारी शरीर को बीमारियों ने भी दबोच रखा है। वह धीरे से उठी। चलते-चलते उसका शरीर थोड़ा-सा बायीं ओर झूल जाता था। उठ कर उसने बिजली का बटन दबाया। रोशनी में सब कुछ साफ़ हो गया। आप कब आए? मुझे तो आपके आने का पता ही नहीं चला। वह चुप रहे।
फिर पास आकर उसने बड़ी आत्मीयता से पूछा, ''पानी दूँ?''
''नहीं, रहने दे। अब खाना ही खाएँगे।''
''बच्चे अभी नहीं आए?'' उन्होंने आदतन पूछ तो लिया फिर खुद ही लगा कि उनकी आवाज़ में अब ''बच्चे'' कहते वक़्त कितना खोखलापन आ जाता है। किन को बच्चे कहना चाहिए था और किन को बच्चे कर रहे हैं। लक्ष्मी तो समझती हे कि उनका बच्चों से मतलब पैंतालीस साल के कुबेर या बयालीस साल की मौनिका या छत्तीस साल के लट्टू से होता है पर उम्र के इस पड़ाव पर बच्चों से मतलब नातियों और पोतों से होना चाहिए था। कितना चाहते थे वह कि मनी की शादी हो जाए। एक डॉक्टर लड़के को सगाई करके ले भी आए। शुक्र है कि जल्दी ही पता लग गया कि वह ग्रीन-कार्ड लेने के चक्कर में शादी करना चाहता था। बस, वह सगाई तोड़ देने के बाद उनकी हिम्मत ही नहीं पड़ी किसी और लड़के पर विश्वास करने की।
कुबेर ने भी कितनी देर तक अपना विवाह स्थगित किए रखा। बड़ा भाई डॉक्टर है, बहुत बड़ा आकर्षण था लड़के वालों के लिए। लक्ष्मी को भी लगता कि बहू पहले आ गई तो कहीं कुबेर को बहन को शादी का खर्चा करने से रोक न दे। लक्ष्मी के तीनों भाई सपरिवार यहीं थे। बड़ी भाभी तो साफ़ कहती, ''बहन जी, हर चीज़ की कीमत होती है, अमरीका आने की भी एक कीमत है।''
सुन कर दोनों को लगता जैसे किसी ने उनके पके हुए ज़ख्म को छू दिया हो। उनके बच्चों की बड़ी उमर और अभी तक शादी न होने के बारे में कोई न कोई फ़िकरा कस ही देता था।
''अगर आप भारत में होते तो आप के बच्चों की कब की शादियाँ हो चुकी होतीं।''
अब उन्हें भी संदेह होने लगा था कि क्या सचमुच इस बड़े घर, कारों, और मोटी चैक-बुक की कीमत उनके बच्चों ने अपनी जवानी से तो नहीं चुकाई? उम्र सिक्कों में तो नहीं मिलती, पता ही नहीं चला कि क्या पाने के लिए क्या और कितना दे दिया?
लक्ष्मी ने बाद में खुद ही आग्रह करके कुबेर को शादी करने पर तैयार कर लिया। श्री मायादास की सभी शर्तों को पूरा करती थी। वह डॉक्टर भी थी, भारत की ही पढ़ी हुई, मतलब बिगड़ी हुई नहीं, शिकागो में पढ़ाई का दूसरा साल पूरा कर रही थी, मतलब अमरीका आकर यहाँ की परीक्षा में फेल होने का ख़तरा नहीं। देखने में गोरी पर घरेलू लगती थी। भला और क्या चाहिए था और यहीं मात खा गए मायादास। उन्हें डॉक्टर तो मिल गई पर 'बहू' नहीं मिल पाई।
श्री ने दो साल रेज़ीडेन्सी के शिकागो में ही बिताए और कुबेर न्यू-जर्सी में प्रैक्टिस करता रहा। एक तरह से मनी को लेकर जो अजीब-सी असुविधा घर में सबको थी, वह भी काफ़ी कुछ आसान हो गई क्यों कि श्री बस मेहमान की ही तरह घर में आती थी। फिर जब उसे शर्त के मुताबिक दो साल के लिए भारत जाकर रहना पड़ा तो लगा कि संतुलन डगमगा गया। लौटी तो फेलोशिप करने के लिए न्यूयार्क में रहने लगी। सभी लोग आशा लगाए बैठे थे कि अब गृहस्थी बस जाएगी। पढ़ाई पूरी कर शायद श्री माँ बनना चाहे। जब न्यू-जर्सी में अपनी लाईन की नौकरी नहीं मिली तो कुबेर का धैर्य भी जवाब दे गया।
''इतना पढ़-लिख कर अब घर तो नहीं बैठ सकती न।''
श्री के इस उत्तर से वह निरुत्तर हो गया। शादी में समझौते का क्या मतलब होता है, अब उसकी समझ में आ गया था।
इस बार भी दिवाली श्री-विहीन ही थी।
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चारों तरफ़ फैले शॉपिंग के थैलों को देख कर लक्ष्मी को थोड़ी खीज-सी हुई फिर पी गई। जब से मनी की सगाई टूटी है तब से उसकी यह शॉपिंग की आदत हद से बाहर हो गई है। लगातार हर वक़्त चीज़ें ख़रादती रहती है। घर को सजाने की, अपनी, भाइयों की, ममी की, पापा की, ज़रूरत की और ज़्यादातर बेज़रूरत की।
''क्यों कूड़ा-कबाड़ इकठ्ठा करती रहती है?'' लक्ष्मी खीजती। पर मनी घर में चीज़ें भरती जाती, भरती जाती जैसे कोई असीमित खालीपन हो, भरता ही न हो।
अब लक्ष्मी उसे कुछ नहीं कहती।
''ज़रा मनी को आवाज़ दो, ऊपर होगी।'' उसने पति से कहा।
पापा की आवाज़ सुन कर मनी दौड़ती हुई नीचे आ गई।
''लट्टू भी ऊपर है क्या? क्या कर रहा है?''
''इंटरनेट पर बैठा है, लड़कियाँ देख रहा होगा।'' मनी ने जैसे शिकायत लगाई।
''क्या बात करती है बेटे? उन्होंने प्यार से बेटे की तरफ़दारी की।'' उसको भी नीचे बुला ले।''
''पापा, श्री साउथ-कैरोलाइना से जो उसके लिए पटाखे लाई थी न वह उन्हें चलाने की सोच रहा है।''
''ना,ना,ना, यह कभी न करने देना उसे, ग़ैर-कानूनी है यहाँ पटाखे चलना।'' मायादास को अपरिपक्व बुद्धि वाले अपने इस छोटे बेटे से हमेशा ही ख़तरा बना रहता था।
''दिवाली वाले दिन पटाखे चलाना ग़ैर-कानूनी है?'' मनी ने त्यौरियाँ चढ़ा कर प्रश्न दाग़ा।
मायादास चुप ही रहे क्या जवाब देते?
फिर उन्होंने बात बदल कर बहुत प्यार से कहा, ''मनी बेटे, आज दिवाली है, कुछ तो पूजा की तैयारी कर लो।''
''पापा, बहुत थकी हुई आई हूँ काम से।'' कह कर मनी ने बाकी के घर की बत्तियाँ भी जला दी। एक उड़ती हुई उम्मीद से उसने अपने पापा के आस-पास नज़र डाली। कहीं कोई रंगीन थैला न देख, मन मसोस कर चुप-सी हो गई। ध्यान आया, अमरीका आने के कुछ साल बाद ही हालात कितने अच्छे हो गए थे। कुबेर की प्रैक्टिस तो अच्छी चल ही पड़ी थी उधर पापा ने ज़िंदगी की दौड़ के इस दूसरे दौर को भी मेहनत करके जीत लिया था। थोक के कपड़ों का व्यापार चला कर, पुरस्कार लट्टू के हाथ में थमा दिया और खुद उसके पीछे हो लिए। वह तो ख़ैर थी ही सबसे पहली बैंक में नौकरी करने वाली। क्लर्क से शुरू होकर मैनेजर बन गई थी अब। चार जनों की कमाई आने लगी थी अब घर में। ईस्ट-पटेल नगर वाले उस छोटे से घर को सभी भूल चुके थे। जब से कुबेर की डॉक्टरी के साथ श्री की भी डॉक्टरी का गठ-बंधन हुआ तभी से सभी और भी बड़ा घर लेने की बातें करने लगे थे।


श्री और कुबेर की शादी के बाद पहली दिवाली आई थी तो मायादास घर की तीनों औरतों के लिए सोने के गहने लाए थे। मिठाई भी खूब आई थी उस बार। लट्टू ने भी पड़ोसियों को ठेंगा दिखाते हुए, खिड़कियों पर दो महीने पहले ही, क्रिसमस की रोशनियाँ लगा कर दिवाली की तैयारी कर दी। यह बात अलग थी कि श्री तब शिकॉगो में रेज़ीडेंसी कर रही थी और दिवाली उसके बिना ही हुई। फिर पता नहीं कब धीरे-धीरे उपहारों का यह सिलसिला बंद हो गया। मायादास शायद इस बार भी कोई उपहार नहीं लाए।
''क्या बनाया है आज खाने को?'' मायादास ने लक्ष्मी की ओर मुँह करके पूछा।
''मैंने तो बस दोपहर को दाल ही रख दी थी।'' लक्ष्मी ने बड़ी बेचारगी के साथ कहा। उससे अब खड़े होकर काम नहीं होता।
''आते वक़्त हमने एडीसन से मिठाई के साथ-साथ थोड़े नान और मटर पनीर की सब्ज़ी भी उठा ली थी। तू फ़िक्र न कर। आज दिवाली है न।''
वह किसी भी तरह से यह बात महसूस करना चाहते थे या करवा देना चाहते थे कि आज ख़ास दिन है।
लक्ष्मी वहीं उनके पास बैठ गई। चुपचाप सेब काटने शुरू कर दिए। जब यहाँ आने के तीन साल बाद ही उन्होंने यह घर ख़रीदा था तो कितना उत्साह था उसमें। दिवाली पर उसने अपने तीनों भाइयों को सपरिवार आमंत्रित किया था। दो दिन बाद भैया-दूज भी थी न, कहा कि 'टीका' भी लगवाते जाना। उन दिनों खुशी के मारे उसके ज़मीन पर पाँव नहीं पड़ते थे। सोच-सोच कर हैरान होती, इतना बड़ा घर उसका है? पिछवाड़े कभी-कभी हिरण भी दिख जाते। वह उनके लिए बासी बचा हुआ खाना डाल आती और बेतरतीब फैला हरा फैलाव देख कर सोचती, इतना सारा जंगल हमारा है? ड्राइव-वे में खड़ी चारों कारों को देख कर पूछती, ''हाय राम! यह सारी कारें हमारी ही हैं क्या?''
वह अभी तक सौ हज़ार डॉलर को, लाख डॉलर ही कहती। उसे लाख रुपया अब बड़ी मामूली-सी चीज़ लगता था- सिर्फ़ ढाई हज़ार डॉलर्स। वह सब को बुलाकर अपना नया-नया वैभव दिखाना चाहती थी। पर उसे लगता कि उसके भाई और भाभियाँ उससे प्रभावित ही नहीं होते थे। शायद वह उससे पहले के यहाँ आए हुए थे, इसी बात को लेकर उनमें एक अहं का भाव था। उसे अमरीका बुलाया भी तो बड़े भाई ने ही था, वह इस बात को कब का भुला चुकी थी।
उस दिन बड़े भाई ने ही पूछा था, ''लक्ष्मी तुझे अमरीका पसंद है न?''
''हाँ, मुझे तो बहुत पसंद है। कितनी साफ़ जगह है। यहाँ न मिट्टी है न धूल। पानी, बिजली सब काम करते हैं। भगवान की दया से पैसे की भी कोई कमी नहीं है हमें।''
''हर चीज़ के लिए कीमत देनी पड़ती है बहन जी।'' बड़ी भाभी ने पता नहीं क्या सोच कर कहा।
''क्यों, हमें यहाँ भला किस बात की कमी है?'' लक्ष्मी ने चिढ़ कर पूछा।
''हिंदुस्तान में होते तो अब तक सब बच्चों की शादी हो जाती।'' भाभी ने फिर से दाग़ दिया।
लक्ष्मी और मायादास दोनों के मुँह का स्वाद कसैला हो गया।
''शादी होने में कौन-सी देर लगती है, बस पास रोकड़ा होना चाहिए। कुबेर की जो बहू आएगी, उसने नोट ही तो गिनने हैं आकर।''
''पैसा'' उनके पास एक ऐसा ट्रंप कार्ड था जिससे वह हर चीज़ को मात देने की सोचते थे।
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गैराज का दरवाज़ा खुलने और फिर बंद होने की आवाज़ आई। कुबेर घर के भीतर आ चुका था। दायें हाथ से टाई उतारते हुए उसने मनी को आवाज़ लगाई।
''बहुत भूख लगी है। मनी, जल्दी से खाना डाल दे।''
मनी ने फ़ुर्ती से खाना माइक्रोवेव में गर्म किया और काग़ज़ की प्लेटें और प्लास्टिक के चम्मच सब के आगे रख दिए। सभी चुपचाप खा रहे थे, सिवाय मनी के। एक पिटे हुए रिकार्ड की तरह उसकी शिकायतें पृष्ठ-भूमि में चल रही थीं।
''दिवाली है, कोई और तो घर में दिलचस्पी लेता नहीं। मैं अकेली क्या-क्या करूँ?''
उसकी बातों को बिल्कुल अनसुना कर लक्ष्मी बोली, ''जा मनी, मंदिर में जाकर ज़रा पूजा की तैयारी तो कर दे। हम अभी आते हैं। आख़िर दिवाली की पूजा तो करनी है न।''
रसोई के बायीं ओर, मंदिर वाले कमरे में जाकर सभी बैठ गए। चाँदी की बड़ी-सी थाली में, सात चाँदी के ही दीये जगमगाने लगे। जयपुर से ख़ास लाई गई संगमरमर की मूर्तियाँ, उनके लिए ज़री के वस्त्र, सोने का पानी चढ़े आभूषण और लाल रंग का सिर्फ़ पूजा के लिए ही रखा गया कालीन। मायादास विभोर हो गए। दीवार के साथ टेक लगा कर कुबेर लट्टू चुपचाप, थके हारे से बैठ गए। लक्ष्मी से अब ज़मीन पर बैठा नहीं जाता। उसने बायीं टाँग सीधी ही रखी, घुटना मोड़ने से दर्द उठता था। पति से बोली, ''ज़रा इन गणेश-लक्ष्मी के सिक्कों को दूध से धोकर, केसर और चावल का तिलक तो लगा दीजिए।''
उसने मिठाई का डिब्बा खोल कर रख दिया। लक्ष्मी ने आँखें बंद करके आरती करनी शुरू कर दी। कमरे में लैंप की रोशनी बहुत धीमी थी, आऱती के दिये की लौ काँप-काँप जाती। मनी सबसे पीछे जाकर, बड़े से तुलसी के ग़मले के पास जाकर बैठ गई। पहले हर दिवाली को उसके मन में एक उम्मीद की कंपकंपाहट होती थी। शायद, अगली दिवाली पर कोई दूसरा घर हो और वह खुद गृहलक्ष्मी हो। लाल साड़ी मे गहनों से झिलमिलाती वह किसी की तरफ़ यों ही प्यार से देखे और कहे, ''ज़रा गणेश-लक्ष्मी जी को तिलक तो लगा दीजिए।''
उसने आँखें बंद की हुई थीं और आज उस ख़याल की एक छोटी-सी झलक भी अंदर नहीं तिरी। कितनी दीपावलियाँ बीत गई- यों ही इस घर में। उसने सीने से एक हल्की-सी कराहती-सी साँस उठी और फिर वहीं हल्के अँधेरे में सिमट गई।
लट्टू की आँखें दियों पर टिकी थी, वैसी ही एक चमक उसकी अपनी आँखों में भी थी। पापा ने आज कार में लौटते वक़्त कहा था, ''लट्टू तू छत्तीस का हो गया तो उससे क्या फ़र्क पड़ता है? इंडिया जाकर चौबीस-पच्चीस सालकी किसी सुंदर-सी लड़की से तेरी शादी करा देंगे। बस, पास पैसा होना चाहिए, लोग छोटी-छोटी लड़कियाँ भी ब्याह देते हैं।''
लट्टू के चेहरे पर मुस्कान आ गई। उसने अपने हल्के होते हुए बालों पर उस्तरा फिरवा कर, सिर बिल्कुल ''क्लीन-शेव'' करवा लिया था। उसने सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े फ़िल्मी अंदाज़ से, गर्दन को थोड़ा टेढ़ा किया। अचानक उसे ध्यान आया कि मलीसा फ़ोन का इंतज़ार कर रही होगी। वह ऊपर भागा। कुबेर ने महसूस किया कि श्री कभी दिवाली पर यहाँ नहीं होती। असल में कभी भी नहीं होती। बस महीने में दो-तीन दिन की छुट्टी लेकर भागती-दौड़ती आती है, ऐसे ही सब कुछ बेतरतीब से फैला कर, फिर वैसे ही वापस लौट जाती है। यहाँ होती तो शायद माँ आज की पूजा उससे करवातीं। पता नहीं, तब मनी को कैसा लगता? श्री तो उम्र में मनी से भी दो साल छोटी है। उसने गहरी नज़र से मूर्तियों को देखा, या शायद नहीं। ज़रा-सा प्रसाद मुँह लगा कर वह उठ गया।
''मुझे नींद आ रही है, सुबह फिर जल्दी उठना है।'' उसने धीरे से कहा।
''लो, अब यह इतनी सारी मिठाई कौन खाएगा?'' लक्ष्मी ने शिकायत के लहजे से कह तो दिया, फिर लगा नहीं कहना चाहिए था। मायादास और लक्ष्मी की आँखें मिलीं और वापस जाकर मक्खन का पेड़ा हाथ में उठाए, बाल-गोपाल की तस्वीर पर ठहर गईं।
दोनों पति-पत्नी वहीं टिमटिमाते दियों की काँपती रोशनी में चुपचाप बैठे रहे। मनी का जाना न किसी ने देखा और न महसूस ही किया। मायादास के कानों में कहीं बहुत दूर दिवाली के बम फूटने की आवाज़ें गूँज रही थीं। अमावस्या की रात में उनके मन में जैसे रोशनी की इच्छा ने सिर उठाया।
''अगली दिवाली हिंदुस्तान में मनाएँगे। सभी जाएँगे। बस, पास रोकड़ा होना चाहिए।''
मोम के दीयों की लौ चटखने लगी थी। अपनी आवाज़ के इस अजनबी खोखलेपन सेवह खुद ही घबरा गए। लक्ष्मी मुँह बाये उनकी ओर देखती रही।
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बिस्तर की ओर बढ़ते हुए कुबेर का पाँव किसी चीज़ में अटक गया। अँधेरे में ही हाथ बढ़ा कर उसने उठा लिया। श्री की साड़ी थी, जो लापरवाही से वह यों ही कुर्सी पर फेंक गई थी। उठा कर वापस रखते हुए उसका हाथ रुक गया। उसने धीरे से उठा कर, उसे अपने पलंग के सिरहाने पर रख दिया, वहाँ, जहाँ आने पर श्री सिर रख कर सोया करती थी।